प्रस्तावना:
हाल ही में भारत के राष्ट्रपति द्वारा एक Presidential Reference सुप्रीम कोर्ट में दायर किया गया है, जिसमें यह सवाल उठाया गया है कि क्या संसद और राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति और राज्यपाल की मंजूरी के लिए कोई समयसीमा निर्धारित की जा सकती है? यह मुद्दा न केवल संवैधानिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि संघीय व्यवस्था और विधायी प्रक्रिया की पारदर्शिता के लिए भी अत्यंत प्रासंगिक है।
राष्ट्रपति के Presidential Reference का संदर्भ:
भारत के संविधान का अनुच्छेद 143 राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वह सर्वोच्च न्यायालय से किसी भी कानूनी या संवैधानिक प्रश्न पर परामर्श मांग सकता है। इसी के तहत राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से यह राय मांगी है कि क्या विधेयकों पर हस्ताक्षर या अनुमोदन देने में अनावश्यक विलंब की कोई सीमित समयसीमा तय की जा सकती है।
यह संदर्भ विशेष रूप से तमिलनाडु, तेलंगाना, पंजाब और केरल जैसे राज्यों द्वारा उठाए गए उन मामलों से जुड़ा है जहाँ विधायिकाओं द्वारा पारित विधेयक राज्यपालों के पास मंजूरी के लिए महीनों तक लंबित पड़े रहे।
संवैधानिक प्रावधान:
अनुच्छेद 200 (राज्यपाल का अनुमोदन): राज्यपाल किसी राज्य विधेयक को
स्वीकृति दे सकते हैं,
उसे राष्ट्रपति के पास विचारार्थ भेज सकते हैं, या
पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकते हैं (यदि वह साधारण विधेयक हो)।
समस्या यह है कि संविधान में यह स्पष्ट नहीं किया गया कि राज्यपाल कितने समय तक विधेयक अपने पास रख सकते हैं।
अनुच्छेद 201 (राष्ट्रपति का अनुमोदन): राष्ट्रपति को भेजे गए विधेयकों पर भी कोई समयसीमा नहीं दी गई है।
समस्या की जड़:
राजनीतिक टकराव: जब राज्यपाल केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त होते हैं और राज्य में विपक्ष की सरकार होती है, तो टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है।
विधायी जड़ता: बिना समयसीमा के, विधायिकाओं के कार्य निष्प्रभावी हो सकते हैं, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया बाधित होती है।
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका:
सुप्रीम कोर्ट सीधे तौर पर कानून नहीं बना सकता, लेकिन वह संवैधानिक व्याख्या कर सकता है और निर्देशात्मक दिशानिर्देश दे सकता है।
पूर्व में एस.आर. बोम्मई केस और नबाम रेबिया बनाम अरुणाचल प्रदेश मामले में कोर्ट ने राज्यपालों की भूमिका पर स्पष्ट टिप्पणियाँ की थीं।
आगे की राह:
संवैधानिक व्याख्या: सुप्रीम कोर्ट यह स्पष्ट कर सकता है कि “युक्त समय” (reasonable time) की व्याख्या क्या है।
संवैधानिक संशोधन: यदि संसद चाहे तो अनुच्छेद 200 और 201 में संशोधन कर समयसीमा निर्धारित कर सकती है।
नैतिक दायित्व और जवाबदेही: राष्ट्रपति और राज्यपालों को लोकतांत्रिक मर्यादाओं का पालन करने की नैतिक जिम्मेदारी है।
विधेयकों को मंजूरी देने की प्रक्रिया में पारदर्शिता, गति और जवाबदेही लाने के लिए यह मुद्दा अत्यंत महत्वपूर्ण है। यदि सुप्रीम कोर्ट इस पर समयसीमा तय करने की दिशा में मार्गदर्शन देता है, तो यह भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सशक्त बनाने की दिशा में ऐतिहासिक कदम होगा।
यह मामला सिर्फ कानून का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा का प्रश्न है।