भारतीय इतिहास में 19वीं सदी का मध्यकाल अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उभरते प्रतिरोध का प्रतीक था। इस प्रतिरोध का एक बड़ा स्वरूप 1857 की क्रांति के रूप में सामने आया, जिसे भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है। इस संग्राम के कई महानायकों में एक प्रमुख नाम है – नाना साहेब पेशवा का।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
नाना साहेब का जन्म 19 मई 1824 को महाराष्ट्र में हुआ था। उनका असली नाम धोंडू पंत था। वे मराठा साम्राज्य के अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों ने सन् 1818 में पराजित कर बिठूर (उत्तर प्रदेश) में नजरबंद कर दिया था। बाजीराव की मृत्यु के बाद नाना साहेब ने पेशवा की उपाधि और उनके पेंशन अधिकारों को पाने की कोशिश की, लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे नकार दिया। यह अन्याय ही उनके भीतर अंग्रेजों के प्रति गहरा आक्रोश भर गया।
1857 की क्रांति में भूमिका
जब 1857 में भारत के विभिन्न हिस्सों में सिपाहियों और आम जनता ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत शुरू की, तो नाना साहेब ने इसे समर्थन देने और नेतृत्व करने में अग्रणी भूमिका निभाई। उन्होंने कानपुर को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया और वहां अंग्रेजों के खिलाफ संगठित विद्रोह छेड़ दिया।
नाना साहेब की सेना ने कानपुर में अंग्रेजों की छावनियों पर हमला बोला और उन्हें भारी नुकसान पहुंचाया। उन्होंने स्वयं को स्वतंत्र पेशवा घोषित किया और एक वैकल्पिक प्रशासन स्थापित करने की कोशिश की। उनके नेतृत्व में विद्रोहियों ने अंग्रेजों के मनोबल को झकझोर कर रख दिया।
विवाद और अंत
कानपुर की घटनाओं के दौरान कई विवादास्पद घटनाएं हुईं, जिनमें सती चौरा घाट पर अंग्रेज कैदियों की हत्या प्रमुख है। अंग्रेजों ने इस त्रासदी का सारा दोष नाना साहेब पर मढ़ा और उन्हें ‘क्रूर’ कहकर प्रचारित किया। हालाँकि, इस बात के पक्के प्रमाण नहीं हैं कि वह इन हत्याओं के सीधे जिम्मेदार थे।
1857 की क्रांति के असफल होने के बाद नाना साहेब भूमिगत हो गए। उनके अंतिम वर्षों के बारे में निश्चित जानकारी नहीं है। कुछ मानते हैं कि वे नेपाल भाग गए और वहीं निधन हुआ।
नाना साहेब की विरासत
नाना साहेब ने सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ शस्त्र नहीं उठाया, बल्कि उन्होंने स्वतंत्रता की अलख भी जगाई। वे न सिर्फ एक योद्धा थे, बल्कि एक कुशल रणनीतिकार और दूरदर्शी नेता भी थे। उनका योगदान भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सदैव स्मरणीय रहेगा।
1857 की क्रांति भले ही तत्कालीन रूप में सफल न हो सकी, लेकिन इसने भारत में स्वतंत्रता की नींव रखी। और इस नींव के शिल्पकारों में नाना साहेब का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। आज उनके जन्मदिवस पर हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनके साहस एवं बलिदान को नमन करते हैं।